जीवित्पुत्रिका व्रत यानी जीवित संतान के लिए रखा जाने वाला व्रत है.
जीवित्पुत्रिका व्रत यह व्रत वह सभी सौभाग्यवती स्त्रियां रखती हैं जिनको संतान होती है. साथ ही जिनके संतान नहीं वे स्त्रियां भी पुत्र की कामना और पुत्री की लंबी आयु के लिए यह व्रत रखती हैं.
माँ का निर्जला उपवास जिवितुत्रिका जीतिया व्रत कथा हिंदी में
आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को प्रदोष काल यानी जब सूर्य छुप रहा हो और शाम गहराने लगे, माताएं अपनी संतान की दीर्घायु, स्वास्थ्य और संपन्नता की मनोकामना से यह व्रत करती हैं.
इस साल यह व्रत 13 सितंबर 2017 को हो रहा है.
चक्की में पिसे हुए गेहूं के आटे में गुड़ मिलाकर शुद्ध घी में पकवान बनाया जाता है. पुत्र के नाम का एक बंधन माताएं अपने गले में धारण कर लेती हैं. मान्यता है कि चक्की में वह संतान पीस देती हैं. जो कुछ बच जाता है उसे स्वयं धारण कर लेती हैं.
पार्वतीजी ने एक स्थान पर स्त्रियों को विलाप करते देखा तो शिवजी से उसका कारण पूछा. शिवजी ने बताया कि इन स्त्रियों के पुत्रों का निधन हो गया है इसलिए ये विलाप कर रही हैं.
पार्वतीजी बहुत दुखी हो गईं. उन्होंने कहा- हे नाथ एक माता के लिए इससे अधिक हृदय विदारक बात क्या हो सकती है कि उसके सामने उसका पुत्र मर जाए. इससे मुक्ति का कोई तो मार्ग हो, कृपया बताएं.
शिवजी ने कहा– हे देवी जो विधाता द्वारा रचित है उसमें हेर-फेर नहीं हो सकता किंतु जीमूतवाहन की पूजा से माताएं अपनी संतान पर आए प्राणघाती संकटों को भी टाल सकती हैं.
जो माता आश्विन मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी को जीमूतवाहन की पूजा विधि-विधान से करेगी उसकी संतान के संकटों का नाश होगा.
पार्वतीजी के अनुरोध पर शिवजी ने उन मृत बालकों को पुनः जीवित कर दिया. इस कारण ही इसे जीवितपुत्रिका व्रत कहा जाता है.
जीमूतवाहन की कथा ही मुख्य रूप से सुनी जाती है किंतु आंचलिक क्षेत्रों में कई कथाएं प्रचलित हैं जिसमें चिल्हो-सियारो की कथा भी है. आपको जीवितपुत्रिका की संक्षिप्त व्रत कथा सुनाते हैं.
।।जीवितपुत्रिका व्रत कथा।।
गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था. वे बडे उदार और परोपकारी थे. जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था.
वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए. वन में ही जीमूतवाहन को मलयवती नामक राजकन्या से भेंट हुई और दोनों में प्रेम हो गया.
एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी.
पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया- मैं नागवंश की स्त्री हूं. मुझे एक ही पुत्र है. पक्षीराज गरुड के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए नागों ने यह व्यवस्था की है वे गरूड को प्रतिदिन भक्षण हेतु एक युवा नाग सौंपते हैं.
आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है. आज मेरे पुत्र के जीवन पर संकट है और थोड़ी देर बाद ही मैं पुत्रविहीन हो जाउंगी. एक स्त्री के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसके जीते जी उसका पुत्र न रहे.
जीमूतवाहन को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ. उन्होंने उस वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा- डरो मत. मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा. आज उसके स्थान पर स्वयं मैं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा ताकि गरूड मुझे खा जाए पर तुम्हारा पुत्र बच जाए.
इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपडा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए. नियत समय पर गरुड बडे वेग से आए और वे लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड के शिखर पर जाकर बैठ गए.
गरूड़ ने अपनी कठोर चोंक का प्रहार किया और जीमूतवाहन के शरीर से मांस का बड़ा हिस्सा नोच लिया. इसकी पीड़ा से जीमूतवाहन की आंखों से आंसू बह निकले और वह दर्द से कराहने लगे.
अपने पंजे में जकड़े प्राणी की आंखों में से आंसू और मुंह से कराह सुनकर गरुड बडे आश्चर्य में पड गए क्योंकि ऐसा पहले कभी न हुआ था. उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा. जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया कि कैसे एक स्त्री के पुत्र की रक्षा के लिए वह अपने प्राण देने आए हैं. आप मुझे खाकर भूख शांत करें.
गरुड उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राणरक्षा के लिए स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए. उन्हें स्वयं पर पछतावा होने लगा. वह सोचने लगे कि एक यह मनुष्य है जो दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिए स्वयं की बलि दे रहा है और एक मैं हूं जो देवों के संरक्षण में हूं किंतू दूसरों की संतान की बलि ले रहा हूं. उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्त कर दिया.
गरूड ने कहा- हे उत्तम मनुष्य मै, तुम्हारी भावना और त्याग से बहुत प्रसन्न हूं. मैंने तुम्हारे शरीर पर जो घाव किए हैं उसे ठीक कर देता हूं. तुम अपनी प्रसन्नता के लिए मुझसे कोई वरदान मांग लो.
राजा जीमूतवाहन ने कहा- हे पक्षीराज आप तो सर्वसमर्थ हैं. यदि आप प्रसन्न हैं और वरदान देना चाहते हैं तो आप सर्पों को अपना आहार बनाना छोड़ दें. आपने अब तक जितने भी प्राण लिए हैं उन्हें जीवन प्रदान करें.
गरुड ने सबको जीवनदान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दिया. इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई. गरूड़ ने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा वैसा ही होगा. हे राजा! जो स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा सुनेगी और विधिपूर्वक व्रत का पालन करेगी उसकी संतान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी.
तब से ही पुत्र की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई.
यह कथा कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी. जीवित पुत्रिका के दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा एवं ध्यान के बाद ऊपर बताई गई व्रत कथा भी सुननी चाहिए.
इसकी पूजा शिवजी को प्रिय प्रदोषकाल में करनी चाहिए. व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है.
।।चिल्हो सियारो की कथा।।
जीवित पुत्रिका व्रत में चिल्हो सियारो की एक कथा भी सुनी जाती है. वह संक्षेप में इस प्रकार से है-
एक वन में सेमर के पेड़ पर एक चील रहती थी. पास की झाडी में एक सियारिन भी रहती थी. दोनों में खूब पटती थी.
चिल्हो जो कुछ भी खाने को लेकर आती उसमें से सियारिन के लिए जरूर हिस्सा रखती.सियारिन भी चिल्हो का ऐसा ही ध्यान रखती. इस तरह दोनों के जीवन आनंद से कट रहे थे.
एक् बार वन के पास गांव में औरतें जिउतीया के पूजा की तैयारी कर रही थी. चिल्हो ने उसे बडे ध्यान से देखा और अपनी सखी सियारो को भी बताओ.
फिर चिल्हो-सियारो ने तय किया कि वे भी यह व्रत करेंगी. “The story of Chilo Siarro’s special news“
सियारो और चिल्हो ने जिउतिया का व्रत रखा. बडी निष्ठा और लगन से दोनों दिनभर भूखे-प्यासे मंगल कामना करत व्रत में रही मगर रात होते ही सियारिन को भूख प्यास सताने लगी.
जब बर्दाश्त न हुआ तो जंगल में जाके उसने मांस और हड्डी पेट भरकर खाया. चिल्हो ने हड्डी चबाने के कड़-कड़ की आवाज सुनी तो पूछा कि यह कैसी आवाज है.
सियारिन ने कह दिया- बहन भूख के मारे पेट गुड़गुड़ा रहा है यह उसी की आवाज है. मगर चिल्हो को पता चल गया.
उसने सियारिन को खूब लताडा कि जब व्रत नहीं हो सकता तो संकल्प क्यों लिया था! सियारीन लजा गई पर व्रत भंग हो चुका था. चिल्हो रात भर भूखे प्यासे रहकर ब्रत पूरा की.
अगले जन्म में दोनों मनुष्य रूप में राजकुमारी बनकर सगी बहनें हुईं. सियारिन बड़ी बहन हुई और उसकी शादी एक राजकुमार से हुई. चिल्हो छोटी बहन हुई उसकी शादी उसी राज्य के मंत्रीपुत्र से हुई.
बाद में दोनों राजा और मंत्री बने. सियारिन राानी के जो भी बच्चे होते वे मर जाते जबकि चिल्हो के बच्चे स्वस्थ और हट्टे-कट्टे रहते. इससे उसे जलन होती.
उसने कभी उनका सर कटवाकर डब्बे में बंद करा दिया पर वह शीश मिठाई बन जाती और बच्चों का बाल तक बांका न होता. बार बार उसने अपनी बहन के बच्चों और उसके पति को मारने का प्रयास भी किया पर सफल न हुई. आखिरकार दैव योग से उसे भूल का आभास हुआ.
उसने क्षमा मांगी और बहन के बताने पर जीवित पुत्रिका व्रत विधि विधान से किया तो उसके पुत्र भी जीवित रहे.